कभी वो कहते थे.........
रास्ता भी तू ही है,
मंजिल भी तू ही हैं।
सागर भी तू ही है ,
साहिल भी तू ही है।
पर आज आलम यूँ हो गया है......कि
न यहाँ तू है,न मैं यहाँ हूँ।
शायद में तेरे दिल में हूँ,चाहे जहाँ हूँ।
पर घुट-घुट कर जी रहा हूँ,
न जाने मैं अब कहाँ हूँ।
खुदा से करता हूँ यही दुआ कि .......
हो गया है उसे निहारे इक अरसा,
अब जुदाई में नहीं जाता और तडपा,
ऐ -खुदा कुछ यूँ अपनी रहमतें बरसा
मिला दे मुझे उस से अब और न तरसा।
लेखक :- संतोष कुमार "सकलानी"